आज भौतिक प्रगति के इस युग में प्रत्येक मनुष्य स्वयं को सभ्य दिखाने के लिए बनावटी जीवन जी रहा है | बात-बात पर अभिनय करना , अपनी सच्चाई को छुपाकर एक मुखौटा लगाकर रहने से जीवन की सारी शान्ति समाप्त हो गई है । हम क्या हैं ? कैसे हैं ? यह बात हमारा मन , हमारी आत्मा अच्छी तरह जानती है लेकिन स्वयं को अच्छा वा सभ्य दिखाने की लिए समय -समय पर भिन्न -भिन्न मुखौटे ओढ़ने से , इस दोहरेपन से जीवन का सारा रस सूख गया है ।
बनावटीपन मे शान्ति नही है , सरलता में , सहजता में शान्ति है ।
बनावटीपन मे शान्ति नही है , सरलता में , सहजता में शान्ति है ।
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