इस संसार में अनेक लोग ऐसे हैं जिनके पास जीवन की सब सुख - सुविधाएँ हैं , धन - वैभव है लेकिन फिर भी शान्ति नहीं है , तनाव पूर्ण जीवन जीते हैं । अशान्त मन के व्यक्ति , परिवार अपने चारों ओर अशांति फैलाते है , धीरे - धीरे अशांति का यह क्षेत्र व्यापक हो जाता है ।
जब कोई भी समाज धन - वैभव के आधार पर लोगों को सम्मान देने लगता हैं तो धन कमाने की लालसा चरम सीमा पर पहुँच जाती है । केवल ' धन ' प्रमुख हो जाता है , प्रेम , संवेदना , करुणा, दया , ईमानदारी आदि सद्गुण पूरे समाज से ही लुप्त हो जाते हैं । सद्गुण हीन समाज में अव्यवस्था फैल जाती है ।
भगवान श्रीकृष्ण ने अपने चरित्र से समाज को शिक्षण दिया कि ' धन - वैभव ' को नहीं सद्गुणों को सम्मान दो ----- जब श्रीकृष्ण शांतिदूत बन कर हस्तिनापुर गए कि दुर्योधन को समझा दें कि वह पांडवों को पांच गाँव ही दे , जिससे युद्ध न हो । उस समय उन्होंने दुर्योधन का वैभवपूर्ण आतिथ्य अस्वीकार कर दिया और महात्मा विदुर के यहाँ का सादा भोजन स्वीकार किया ।
उस समय विदुर जी कहीं बाहर थे , उनकी पत्नी कृष्ण जी को देख प्रसन्नता में ऐसी बावली हो गईं कि केले का गूदा फेंकती गईं और छिलका उन्हें खिलाती गईं । भगवान कृष्ण वह छिलका खाकर ही तृप्त हो गये ।
दुर्योधन सारा जीवन पद और धन के लिए पांडवों के विरुद्ध षड्यंत्र करता रहा , स्वयं परेशानी रहा , पांडवों को परेशान किया । अंत में महाभारत के युद्ध में अपने सब भाई - बन्धु सहित उनका अंत हो गया ।
जब कोई भी समाज धन - वैभव के आधार पर लोगों को सम्मान देने लगता हैं तो धन कमाने की लालसा चरम सीमा पर पहुँच जाती है । केवल ' धन ' प्रमुख हो जाता है , प्रेम , संवेदना , करुणा, दया , ईमानदारी आदि सद्गुण पूरे समाज से ही लुप्त हो जाते हैं । सद्गुण हीन समाज में अव्यवस्था फैल जाती है ।
भगवान श्रीकृष्ण ने अपने चरित्र से समाज को शिक्षण दिया कि ' धन - वैभव ' को नहीं सद्गुणों को सम्मान दो ----- जब श्रीकृष्ण शांतिदूत बन कर हस्तिनापुर गए कि दुर्योधन को समझा दें कि वह पांडवों को पांच गाँव ही दे , जिससे युद्ध न हो । उस समय उन्होंने दुर्योधन का वैभवपूर्ण आतिथ्य अस्वीकार कर दिया और महात्मा विदुर के यहाँ का सादा भोजन स्वीकार किया ।
उस समय विदुर जी कहीं बाहर थे , उनकी पत्नी कृष्ण जी को देख प्रसन्नता में ऐसी बावली हो गईं कि केले का गूदा फेंकती गईं और छिलका उन्हें खिलाती गईं । भगवान कृष्ण वह छिलका खाकर ही तृप्त हो गये ।
दुर्योधन सारा जीवन पद और धन के लिए पांडवों के विरुद्ध षड्यंत्र करता रहा , स्वयं परेशानी रहा , पांडवों को परेशान किया । अंत में महाभारत के युद्ध में अपने सब भाई - बन्धु सहित उनका अंत हो गया ।
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